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कविता

तुम्हारा पता

अंकिता रासुरी


तुम्हारा कल्पना मे भिगोया चेहरा
चीड़ की डालों से उतर आता है मेरी गोद मे
फिर कहाँ रह पाती हूँ मैं यहाँ
पहुँच जाती हूँ उस आँगन की देहरी पर
जहाँ पुटकल की छाँव में कुछ बच्चे
गाने लगते हैं कोई अनजाना सा गीत हमारे लिए
क्योंकि तुम होते हो जद्दोजहद में
बचाने के सखुआ के फूलों को
और मै चुन रही होती हूँ फ्यूंलियों को तुम्हारे लिए
तभी अनायास ही पहुँच जाती हूँ बांज/बुरांश/पलाश के अद्भभुत जंगलों में
तलाशते हुए तुम्हारे वजूद को
वहीं जलकुर नदी पर तैरते चाँद में रसभौंरा और हिलांस
नहा रहे होते हैं आलिंगनबद्ध होकर
और मैं खोज लेती हूँ तुम्हारा पता


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